Tuesday, October 9, 2012

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Saturday, July 21, 2012

भारतीय दर्शन


भारतीय दर्शन
भारतीय मनीषियों के उर्वर मस्तिष्क से जिस कर्म, ज्ञान और भक्तिमय त्रिपथगा का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने दूर-दूर के मानवों के आध्यात्मिक कल्मष को धोकर उन्हेंने पवित्र, नित्य-शुद्ध-बुद्ध और सदा स्वच्छ बनाकर मानवता के विकास में योगदान दिया है। इसी पतितपावनी धारा को लोग दर्शन के नाम से पुकारते हैं। अन्वेषकों का विचार है कि इस शब्द का वर्तमान अर्थ में सबसे पहला प्रयोग वैशेषिक दर्शन में हुआ।
अनुक्रम
• १ ‘दर्शन’ शब्द का अर्थ
• २ भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य विषय
• ३ दर्शन की विकास यात्रा
• ४ दर्शन का महत्त्व
• ५ भारतीय दर्शन का स्त्रोत
• ६ अवैदिक दर्शनों का विकास
• ७ वैदिक दर्शन परंपरा
o ७.१ वैदिक दर्शनों का संक्षिप्त परिचय
§ ७.१.१ न्याय दर्शन
§ ७.१.२ वैशेषिक दर्शन
§ ७.१.३ सांख्य दर्शन
§ ७.१.४ योग दर्शन
§ ७.१.५ मीमांसा दर्शन
§ ७.१.६ वेदांत दर्शन
• ८ शैव और शाक्त संप्रदाय
• ९ बाहरी कड़ियाँ

‘दर्शन’ शब्द का अर्थ
दर्शन शब्द पाणिनीय व्याकरणनुसार दृशिर् प्रेक्षणे धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा। दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। इसीलिए पाणिनी ने धात्वर्थ में ‘प्रेक्षण’ शब्द का प्रयोग किया है। प्रकृष्ट ईक्षण, जिसमें अन्तश्चक्षुओं द्वारा देखना या मनन करके सोपपत्तिक निष्कर्ष निकालना ही दर्शन का अभिधेय है। इस प्रकार के प्रकृष्ट ईक्षण के साधन और फल दोनों का नाम दर्शन है। जहाँ पर इन सिद्धान्तों का संकलन हो, उन ग्रन्थों का भी नाम दर्शन ही होगा, जैसे-न्याय दर्शन, वैशेषिक दर्शन मामांसा दर्शन आदि-आदि।
दर्शन ग्रन्थों को दर्शन शास्त्र भी कहते हैं। यह शास्त्र शब्द ‘शासु अनुशिष्टौ’ से निष्पन्न होने के कारण दर्शन का अनुशासन या उपदेश करने के कारण ही दर्शन-शास्त्र कहलाने का अधिकारी है। दर्शन अर्थात् साक्षात्कृत धर्मा ऋषियों के उपदेशक ग्रन्थों का नाम ही दर्शन शास्त्र है।
भारतीय दर्शन का प्रतिपाद्य विषय
दर्शनों का उपदेश वैयक्तिक जीवन के सम्मार्जन और परिष्करण के लिए ही अधिक उपयोगी है। आध्यात्मिक पवित्रता एवं उन्नयन, बिना दर्शनों को होना दुर्लभ है। दर्शन-शास्त्र ही हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में दीपज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग-दर्शन करने में समर्थ होता है। गीता के अनुसार किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: संसार में करणीय क्या है और अकरणीय क्या है ? इस विषय में विद्वान भी अच्छी तरह नहीं जान पाते। परम लक्ष्य एवं पुरुषार्थ की प्राप्ति दार्शनिक ज्ञान से ही संभव है, अन्यथा नहीं।
दर्शन द्वारा विषयों को हम संक्षेप में दो वर्गों में रख सकते हैं। लौकिक और अलौकिक अथवा भौतिक और आध्यात्मिक। दर्शन या तो विस्तृत सृष्टि प्रपंच के विषय में सिद्धान्त या आत्मा के विषय में हमसे चर्चा करता है। इस प्रकार दर्शन के विषय जड़ और चेतन दोनों ही हैं। प्राचीन ऋग्वैदिक काल से ही दर्शनों के मूल तत्त्वों के विषय में कुछ न कुछ संकेत हमारे आर्ष साहित्य में मिलते हैं।
दर्शन की विकास यात्रा
वेदों में जो आधार तत्त्व बीज रूप में बिखरे दिखाई पड़ते थे, वे ब्राह्मणों में आकर कुछ उभरे; परन्तु वहाँ कर्मकाण्ड की लताओं के प्रतानों में फँसकर बहुत अधिक नहीं बढ़ पाये। आरण्यकों में ये अंकुरित होकर उपनिषदों में खूब पल्लवित हुए। दर्शनों का विकास जो हमें उपनिषदों में हमें दृष्टिगोचर होता है, आलोचकों ने उसका श्रीगणेश लगभग दौ सौ वर्ष ईसा पूर्व स्थिर किया है। महात्मा बुद्ध से यह प्राचीन हैं। इतना ही नहीं विद्वानों ने सांख्य, योग और मीमांसा को भी बुद्ध से प्राचीन माना है। संभव है कि ये दर्शन वर्तमान रूप में उस समय न हों, तथापि वे किसी रूप में अवश्य विद्यमान थे। वैशेषिकदर्शन भी शायद बुद्ध से प्राचीन ही है; क्योंकि जैसा आज के युग में न्याय और वैशेषिक समान तन्त्र समझे जाते हैं, उसी प्रकार पहले पूर्व मीमांस और वैशेषिक समझे जाते थे। बुद्ध दर्शन पद्धति का आविर्भाव ईसा से पूर्व दो सौ वर्ष माना जाता है, परन्तु जैन दर्शन, बुद्ध दर्शन से भी प्राचीन ठहरता है। इसकी पुष्टि में यह प्रमाण दिया जाता है कि प्राचीन जैन दर्शनों में न तो बुद्ध दर्शन और न किसी हिन्दू दर्शन का ही खण्डन उपलब्ध होता है। महावीर स्वामी, जो जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं, वे भी बुद्ध से प्राचीन थे। अतएव जैन दर्शन का बुद्ध दर्शन से प्राचीन होना युक्तियुक्त अनुमान है।
भारतीय दर्शनों का ऐतिहासिक क्रम निश्चित करना कठिन है। इन सब भिन्न-भिन्न दर्शनों का लगभग साथ ही साथ समान रूप से प्रादुर्भाव एवं विकास हुआ है। इधर-उधर तथा बीच में भी कई कड़ियाँ छिन्न-भिन्न हो गई हैं। अत: जो कुछ शेष है, उसी का आधार लेकर चलना है। इस क्रम में शुद्ध ऐतिहासिकता न होने पर भी क्रमिक विकास की श्रृंखला आदि से अन्त तक चलती रही है। इसलिए प्राय: विद्वानों ने इसी क्रम का अनुसरण किया है।
दर्शन का महत्त्व
तत्त्वों के अन्वेषण की प्रवृत्ति भारतवर्ष में उस सुदूर काल से है, जिसे हम ‘वैदिक युग’ के नाम से पुकारते हैं। ऋग्वेद के अत्यन्त प्राचीन युग से ही भारतीय विचारों में द्विविध प्रवृत्ति और द्विविध लक्ष्य के दर्शन हमें होते हैं। प्रथम प्रवृत्ति प्रतिभा या प्रज्ञामूलक है तथा द्वितीय प्रवृत्ति तर्कमूलक है। प्रज्ञा के बल से ही पहली प्रवृत्ति तत्त्वों के विवेचन में कृतकार्य होती है और दूसरी प्रवृत्ति तर्क के सहारे तत्त्वों के समीक्षण में समर्थ होती है। अंग्रेजी शब्दों में पहली की हम ‘इन्टयूशनिस्टिक’ कह सकते हैं और दूसरी को रैशनलिस्टिक। लक्ष्य भी आरम्भ से ही दो प्रकार के थे-धर्म का उपार्जन तथा ब्रह्म का साक्षात्कार।
प्रज्ञामूलक और तर्क-मूलक प्रवृत्तियों के परस्पर सम्मिलन से आत्मा के औपनिषदिष्ठ तत्त्वज्ञान का स्फुट आविर्भाव हुआ। उपनिषदों के ज्ञान का पर्यवसान आत्मा और परमात्मा के एकीकरण को सिद्ध करने वाले प्रतिभामूलक वेदान्त में हुआ।
भारतीय दर्शन का स्त्रोत
भारतीय दर्शन का आरंभ वेदों से होता है। "वेद" भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य आदि सभी के मूल स्त्रोत हैं। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर वेद-मंत्रों का गायन होता है। अनेक दर्शन-संप्रदाय वेदों को अपना आधार और प्रमाण मानते हैं। आधुनिक अर्थ में वेदों को हम दर्शन के ग्रंथ नहीं कह सकते। वे प्राचीन भारतवासियों के संगीतमय काव्य के संकलन है। उनमें उस समय के भारतीय जीवन के अनेक विषयों का समावेश है। वेदों के इन गीतों में अनेक प्रकार के दार्शनिक विचार भी मिलते हैं। चिंतन के इन्हीं बीजों से उत्तरकालीन दर्शनों की वनराजियाँ विकसित हुई हैं। अधिकांश भारतीय दर्शन वेदों को अपना आदिस्त्रोत मानते हैं। ये "आस्तिक दर्शन" कहलाते हैं। प्रसिद्ध षड्दर्शन इन्हीं के अंतर्गत हैं। जो दर्शनसंप्रदाय अपने को वैदिक परंपरा से स्वतंत्र मानते हैं वे भी कुछ सीमा तक वैदिक विचारधाराओं से प्रभावित हैं।
वेदों का रचनाकाल बहुत विवादग्रस्त है। प्राय: पश्चिमी विद्वानों ने ऋग्वेद का रचनाकाल 1500 ई.पू. से लेकर 2500 ई.पू. तक माना है। इसके विपरीत भारतीय विद्वान् ज्योतिष आदि के प्रमाणों द्वारा ऋग्वेद का समय 3000 ई.पू. से लेकर 75000 वर्ष ई.पू. तक मानते हैं। इतिहास की विदित गतियों के आधार पर इन प्राचीन रचनाओं के समय का अनुमान करना कठिन है। प्राचीन काल में इतने विशाल और समृद्ध साहित्य के विकास में हजारों वर्ष लगे होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। उपलब्ध वैदिक साहित्य संपूर्ण वैदिक साहित्य का एक छोटा सा अंश है। प्राचीन युग में रचित समस्त साहित्य संकलित भी नहीं हो सका होगा और संकलित साहित्य का बहुत सा भाग आक्रमणकारियों ने नष्ट कर दिया होगा। वास्तविक वैदिक साहित्य का विस्तार इतना अधिक था कि उसके रचनाकाल की कल्पना करना कठिन है। निस्संदेह वह बहुत प्राचीन रहा होगा। वेदों के संबंध में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि कुरान और बाइबिल की भाँति "वेद" किसी एक ग्रंथ का नाम नहीं है और न वे किसी एक मनुष्य की रचनाएँ हैं। "वेद" एक संपूर्ण साहित्य है जिसकी विशाल परंपरा है और जिसमें अनेक ग्रंथ सम्मिलित हैं। धार्मिक परंपरा में वेदों को नित्य, अपौरुषेय और ईश्वरीय माना जाता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से हम उन्हें ऋषियों की रचना मान सकते हैं। वेदमंत्रों के रचनेवाले ऋषि अनेक हैं।
वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ है। ये संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् कहलाते हैं। मंत्रों और स्तुतियों के संग्रह को "संहिता" कहते हैं। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिताएँ ही हैं। इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं। इन संहिताओं के मंत्र यज्ञ के अवसर पर देवताओं की स्तुति के लिए गाए जाते थे। आज भी धार्मिक और सांस्कृतिक कृत्यों के अवसर पर इनका गायन होता है। इन वेदमंत्रों में इंद्र, अग्नि, वरुण, सूर्य, सोम, उषा आदि देवताओं की संगीतमय स्तुतियाँ सुरक्षित हैं। यज्ञ और देवोपासना ही वैदिक धर्म का मूल रूप था। वेदों की भावना उत्तरकालीन दर्शनों के समान संन्यासप्रधन नहीं है। वेदमंत्रों में जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास ओतप्रोत है। जगत् की असत्यता का वेदमंत्रों में आभास नहीं है। ऋग्वेद में लौकिक मूल्यों का पर्याप्त मान है। वैदिक ऋषि देवताओं से अन्न, धन, संतान, स्वास्थ्य, दीर्घायु, विजय आदि की अभ्यर्थना करते हैं।
वेदों के मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं। ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् ग्रंथों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी लययुक्त है। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है। आरण्यकग्रंथों में आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है। जैसा कि इस नाम से ही विदित होता है, ये वानप्रस्थों के उपयोग के ग्रंथ हैं। उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है। चारों वेदों की मंत्रसंहिताओं के ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् अलग अलग मिलते हैं। शतपथ, तांडय आदि ब्राह्मण प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण हैं। ऐतरेय, तैत्तिरीय आदि के नाम से आरण्यक और उपनिषद् दोनों मिलते हैं। इनके अतिरिक्त ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य आदि प्राचीन उपनिषद् भारतीय चिंतन के आदिस्त्रोत हैं।
उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है। ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है। ब्रह्म को आत्मा भी कहते हैं। "आत्मा" विषयजगत्, शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि आदि सभी अवगम्य तत्वों स परे एक अनिर्वचनीय और अतींद्रिय तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनंदमय है। सभी परिच्छेदों से परे होने के कारण वह अनंत है। अपरिच्छन्न और एक होने के कारण आत्मा भेदमूलक जगत् में मनुष्यों के बीच आंतरिक अभेद और अद्वैत का आधार बन सकता है। आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है। उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है। अद्वैतभाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से जड़ जगत् की उत्पत्ति कैसे होती है, इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है। किंतु सृष्टिवाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैतभाव उपनिषदों के वेदांत का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यही अद्वैतभाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत है। दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदांत मतों का आधार बना। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदांत" भी कहते हैं। उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदांत का सिद्धांत और संप्रदायों का आधार बन गया। उपनिषदों की शैली सरल और गंभीर है। अनुभव के गंभीर तत्व अत्यंत सरल भाषा में उपनिषदों में व्यक्त हुए हैं। उनको समझने के लिए अनुभव का प्रकाश अपेक्षित है। ब्रह्म का अनुभव ही उपनिषदों का लक्ष्य है। वह अपनी साधना से ही प्राप्त होता है। गुरु का संपर्क उसमें अधिक सहायक होता है। तप, आचार आदि साधना की भूमिका बनाते हैं। कर्म आत्मिक अनुभव का साधक नहीं है। कर्म प्रधान वैदिक धर्म से उपनिषदों का यह मतभेद है। संन्यास, वैराग्य, योग, तप, त्याग आदि को उपनिषदों में बहुत महत्व दिया गया है। इनमें श्रमण परंपरा के कठोर संन्यासवाद की प्रेरणा का स्रोत दिखाई देता है। तपोवादी जैन और बौद्ध मत तथा गीता का कर्मयोग उपनिषदों की आध्यात्मिक भूमि में ही अंकुरित हुए हैं।
अवैदिक दर्शनों का विकास
उपनिषदों के अध्यात्मवाद तथा तपोवाद में ही वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया ने एक प्रकट क्रांति का रूप ग्रहण कर लिया। जैन धर्म का आरंभ बौद्ध धर्म से पहले हुआ। महावीर स्वामी के पूर्व 23 जैन तीर्थकर हो चुके थे। महावीर स्वमी ने जैन धर्म का प्रचार किया। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध उनके समकालीन थे। दोनों का समय ई.पू. छठी शताब्दी माना जाता है। इन्होंने वेदों से स्वतंत्र एक नवीन धार्मिक परंपरा का प्रवर्तन किया। वेदों को न मानने के कारण जैन और बौद्ध दर्शनों को "नास्तिक दर्शन" भी कहते हैं। इनका मौलिक साहित्य क्रमश: महावीर और बुद्ध के उपदेशों के रूप मे है जो क्रमश: प्राकृत और पालि की लोकभाषाओं में मिलता है तथा जिसका संग्रह इन महापुरुषों के निर्वाण के बाद कई संगीतियों में उनके अनुयायियों के परामर्श के द्वारा हुआ। बुद्ध और महावीर दोनों हिमालय प्रदेश के राजकुमार थे। युवावय में ही संन्यास लेकर उन्होने अपने धर्मो का उपदेश और प्रचार किया। उनका यह सन्यास उपनिषदों की परंपरा से प्रेरित है। जैन और बौद्ध धर्मों में तप और त्याग की महिमा भी उपनिषदों के दशर्न के अनुकूल है। अहिंसा और आचार की महत्ता तथा जातिभेद का खंडन इन धर्मों की विशेषता है। अहिंसा के बीज भी उपनिषदों में विद्यमान हैं। फिर भी अहिंसा की ध्वजा को धर्म के आकाश में फहराने का श्रेय जैन और बौद्ध संप्रदायों को देना होगा।
जैन दर्शन
महावीर स्वामी के उपदेशों से लेकर जैन धर्म की परंपरा आज तक चल रही है। महावीर स्वामी के उपदेश 41 सूत्रों में संकलित हैं, जो जैनागमों में मिलते हैं। उमास्वाति का "तत्वार्थाधिगम सूत्र" (300 ई.) जैन दर्शन का प्राचीन और प्रामाणिक शास्त्र है। सिद्धसेन दिवाकर (500 ई.), हरिभद्र (900 ई.), मेरुतुंग (14वीं शताब्दी), आदि जैन दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। सिद्धांत की दृष्टि से जैन दर्शन एक ओर अध्यात्मवादी तथा दसरी ओर भौतिकवादी है। वह आत्मा और पुद्गल (भौतिक तत्व) दोनों को मानता है। जैन मत में आत्मा प्रकाश के समान व्यापक और विस्तारशील है। पुनर्जन्म में नवीन शरीर के अनुसार आत्मा का संकोच और विस्तार होता है। स्वरूप से वह चैतन्य स्वरूप और आनंदमय है। वह मन और इंद्रियों के माध्यम के बिना परोक्ष विषयों के ज्ञान में समर्थ है। इस अलौकिक ज्ञान के तीन रूप हैं - अवधिज्ञान, मन:पर्याय और केवलज्ञान। पूर्ण ज्ञान को केवलज्ञान कहते हैं। यह निर्वाण की अवस्था में प्राप्त हाता है। यह सब प्रकार से वस्तुओं के समस्त धर्मों का ज्ञान है। यही ज्ञान "प्रमाण" है। किसी अपेक्षा से वस्तु के एक धर्म का ज्ञान "नय" कहलाता है। "नय" कई प्रकार के होते हैं। ज्ञान की सापेक्षता जैन दर्शन का सिद्धांत है। यह सापेक्षता मानवीय विचारों में उदारता और सहिष्णुता को संभव बनाती है। सभी विचार और विश्वास आंशिक सत्य के अधिकारी बन जाते हैं। पूर्ण सत्य का आग्रह अनुचित है। वह निर्वाण में ही प्राप्त हो सकता है। निर्वाण अत्मा का कैवल्य है। कर्म के प्रभाव से पुद्गल की गति आत्मा के प्रकाश को आच्छादित करती है। यह "आस्रव" कहलाता है। यही आत्मा का बंधन है। तप, त्याग, और सदाचार से इस गति का अवरोध "संवर" तथा संचित कर्मपुद्गल का क्षय "निर्जरा" कहलाता है। इसका अंत "निर्वाण" में होता है। निर्वाण में आत्मा का अनंत ज्ञान और अनंत आनंद प्रकाशित होता है।
बौद्ध दर्शन
बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। क्रियाशील सत्य की धारणा बौद्ध मत की मौलिक विशेषता है। उपनिषदों का ब्रह्म अचल और अपरिवर्तनशील है। बुद्ध के अनुसार परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है। बाह्य पदार्थ "स्वलक्षणों" के संघात हैं। आत्मा भी मनोभावों और विज्ञानों की धारा है। इस प्रकार बौद्धमत में उपनिषदों के आत्मवाद का खंडन करके "अनात्मवाद" की स्थापना की गई है। फिर भी बौद्धमत में कर्म और पुनर्जन्म मान्य हैं। आत्मा का न मानने पर भी बौद्धधर्म करुणा से ओतप्रोत हैं। दु:ख से द्रवित होकर ही बुद्ध ने संन्यास लिया और दु:ख के निरोध का उपाय खोजा। अविद्या, तृष्णा आदि में दु:ख का कारण खोजकर उन्होंने इनके उच्छेद को निर्वाण का मार्ग बताया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्ध धर्म का वेदांत से विरोध हुआ। इस विरोध का फल यह हुआ कि बौद्ध धर्म को भारत से निर्वासित होना पड़ा। किंतु एशिया के पूर्वी देशों में उसका प्रचार हुआ। बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है। इसका चीन में प्रचार है।
सिद्धांतभेद के अनुसार बौद्ध परंपरा में चार दर्शन प्रसिद्ध हैं। इनमें वैभाषिक और सौत्रांतिक मत हीनयान परंपरा में हैं। यह दक्षिणी बौद्धमत हैं। इसका प्रचार भी लंका में है। योगाचार और माध्यमिक मत महायान परंपरा में हैं। यह उत्तरी बौद्धमत है। इन चारों दर्शनों का उदय ईसा की आरंभिक शब्ताब्दियों में हुआ। इसी समय वैदिक परंपरा में षड्दर्शनों का उदय हुआ। इस प्रकार भारतीय पंरपरा में दर्शन संप्रदायों का आविर्भाव लगभग एक ही साथ हुआ है तथा उनका विकास परस्पर विरोध के द्वारा हुआ है। पश्चिमी दर्शनों की भाँति ये दर्शन पूर्वापर क्रम में उदित नहीं हुए हैं।
वसुबंधु (400 ई.), कुमारलात (200 ई.) मैत्रेय (300 ई.) और नागार्जुन (200 ई.) इन दर्शनों के प्रमुख आचार्य थे। वैभाषिक मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं। सैत्रांतिक मत के अनुसार पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं, अनुमान होता है। अत: उसे बाह्यानुमेयवाद कहते हैं। योगाचार मत के अनुसार बाह्य पदार्थों की सत्ता नहीं। हमे जो कुछ दिखाई देता है वह विज्ञान मात्र है। योगाचार मत विज्ञानवाद कहलाता है। माध्यमिक मत के अनुसार विज्ञान भी सत्य नहीं है। सब कुछ शून्य है। शून्य का अर्थ निरस्वभाव, नि:स्वरूप अथवा अनिर्वचनीय है। शून्यवाद का यह शून्य वेदांत के ब्रह्म के बहुत निकट आ जाता है।
चार्वाक दर्शन
वेदविरोधी होने के कारण नास्तिक संप्रदायों में चार्वाक मत का भी नाम लिया जाता है। भौतिकवादी होने के कारण यह आदर न पा सका। इसका इतिहास और साहित्य भी उपलब्ध नहीं है। "बृहस्पति सूत्र" के नाम से एक चार्वाक ग्रंथ के उद्धरण अन्य दर्शन ग्रंथों में मिलते हैं। चार्वाक मत एक प्रकार का यथार्थवाद और भौतिकवाद है। इसके अनुसार एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। अनुमान और आगम संदिग्ध होते हैं। प्रत्यक्ष पर आश्रित भौतिक जगत् ही सत्य है। आत्मा, ईश्वर, स्वर्ग आदि सब कल्पित हैं। भूतों के संयोग से देह में चेतना उत्पन्न होती है। देह के साथ मरण में उसका अंत हो जाता है। आत्मा नित्य नहीं है। उसका पुनर्जन्म नहीं होता। जीवनकाल में यथासंभव सुख की साधना करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए।
वैदिक दर्शन परंपरा
उपनिषद काल में एक ओर बौद्ध और जैन धर्मों की अवैदिक परंपराओं का आविर्भाव हुआ तथा दूसरी ओर वैदिक दर्शनों का उदय हुआ। ईसा के जन्म के पूर्व और बाद की एक दो शताब्दियों में अनेक दर्शनों की समानांतर धाराएँ भारतीय विचारभूमि पर प्रवाहित होने लगीं। बौद्ध और जैन दर्शनों की धाराएँ भी इनमें सम्मिलित हैं। वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन अधिक प्रसिद्ध हैं। गीतादर्शन भी इनका समकालीन है। गीता का कर्मयोग उपनिषदों के ब्रह्मवाद के बाद एक महत्वपूर्ण मौलिक दर्शन है। सभी वैदिक दर्शनों ने कर्मयोग का महत्व स्वीकार किया है। व्यावहारिक होने के कारण उसे प्रतिनिधि भारतीय जीवनदर्शन कहा जा सकता है। गीता के कर्मयोग में अध्यात्म और जीवन का अद्भुद समन्वय हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से यह वैदिक कर्मकांड और उपनिषदों के ब्रह्मवाद का समन्वय है। अध्यात्म और कर्म का यह समन्वय अत्यंत महत्वपूर्ण है। उपनिषदों के वेदांत तथा बौद्ध और जैन धर्म के संन्यासवाद के प्रभाव स भारतीय जनता में विरक्ति और निवृत्ति का प्रभाव इतना बढ़ रहा था कि समाज के लिए घातक बन जाता। ऐसी स्थिति में गीता ने कर्मयोग का संदेश देकर देश को एक संजीवन मंत्र प्रदान किया। अध्यात्म को स्वीकार कर गीता ने सन्यास को एक नई परिभाषा दी। "सन्यास" का सामान्य अर्थ "त्याग" है। किंतु इस त्याग में प्राय: भ्रांति हो जाती है। भोजन, शयन आदि प्राकृतिक कर्मों का त्याग किया जा सकता है। काम्य कर्मों का भी त्याग संभव है। यही गीता का संन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संभव है। यही गीता का सन्यास है। फल की कामना त्याग कर लोक संग्रह के लिए निष्काम कर्म करना जीवन का आदर्श है। यही मोक्ष का साधन है। गीता का यह निष्काम कर्मयोग अधिकांश भारतीय दर्शनों ने अपनाया है। ज्ञानयोग उसका आध्यात्मिक आधार है और भक्तियोग उसका भावात्मक दर्शन है।
गीता के कर्मयोग के अतिरिक्त वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन प्रसिद्ध हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि के बादरायण थे। ईसा के जन्म के आसपास इन दर्शनों का उदय माना जाता है। इनके आरंभिक संकेत उपनिषदों में भी मिलते हैं। प्रत्येक दर्शन का आधारग्रंथ एक दर्शनसूत्र है। "सूत्र" भारतीय दर्शन की एक अद्भुत शैली है। गिने-चुने शब्दों में सिद्धांत के सार का संकेत सूत्रों में रहता है। संक्षिप्त होने के कारण सूत्रों पर विस्तृत भाष्य और अनेक टीकाओं की रचना हुई। भारतीय दर्शन की यह शैली स्वतंत्र दर्शनग्रंथों की पश्चिमी शैली से भिन्न है। गुरु-शिष्य-परंपरा के अनुकूल दर्शन की शिक्षा और रचना इसका आधार है। यह परंपरा षड्दर्शनों के बाद नवीन दर्शनों के उदय में बाधक रही। व्याख्याओं के प्रसंग में कुछ नवीनता और मतभेद के कारण मुख्य दर्शनों में उपभेद अवश्य पैदा हो गए।
प्रमाणविचार, सृष्टिमीमांसा और मोक्षसाधना षड्दर्शनों के सामान्य विषय हैं। ये छ: दर्शन किसी न किसी रूप में आत्मा को मानते हैं। आत्मा की प्राप्ति ही मोक्ष है। पुनर्जन्म, आचार, योग आदि को भी ये मानते हैं। न्याय, योग आदि कुछ दर्शन ईश्वर में विश्वास करते हैं। सांख्य और मीमांसा दर्शन निरीश्वरवादी हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण सामान्यत: सभी दर्शनों को मान्य हैं। मीमांसा मत में अर्थापत्ति और अनुपलब्धि ये दो प्रमाण और माने जाते हैं।
उपनिषन्मूलक होने के कारण इनमें वेदांतदर्शन सबसे अधिक प्राचीन है। किंतु ब्रह्मसूत्र में अन्य दर्शनों का खंडन है तथा उसका प्राचीनतम भाष्य आदि शंकराचार्य का है (8 वीं शताब्दी)। अन्य दर्शन सूत्रों के भाष्य ईसा की आरंभिक शताब्दियों में रचे गए। सांख्यसूत्र संभवत: लुप्त हो गया। ईश्वरकृष्ण (5वीं शताब्दी) की "सांख्यकारिका" सांख्य दर्शन का प्रामाणिक ग्रंथ है। सांख्य दर्शन निरीश्वरवादी द्वैतवाद है। इसके अनुसार प्रकृति और पुरुष दो स्वतंत्र और सनातन सत्ताएँ हैं। "प्रकृति" जड़ है और जगत् का सूक्ष्म कारण् है। वह सत्व, रजस्, और तमस् इन तीन गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रकृति है। प्रकृति के साथ पुरुष का संपर्क होने से सर्ग का आरंभ होता है। सर्ग पुरुष का बंधन है। तत्वज्ञान से मोक्ष होता है। अपने शुद्ध चेतन कर्तृत्व भोक्तृत्व रहित स्वरूप के ज्ञान से पुरुष मुक्त होता है।
योग दर्शन के सिद्धांत सांख्य के समान हैं। योगसूत्र पर रचित भाष्य और टीकाएँ योगदर्शन की विस्तृत परंपरा का आधार हैं। योगदर्शन का मुख्य लक्ष्य समाधि के मार्ग को प्रशस्त करना है। समाधि में चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है। अभ्यास, वैराग्य और ध्यान योग के मुख्य साधन हैं। ईश्वर को भी ध्यान का लक्ष्य बनाया जा सकता है इतना ही योगदर्शन में ईश्वर का महत्व है। यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के आठ अंगों से युक्त अष्टांगयोग योग का सर्वजन सुलभ मार्ग है।
न्याय-वैशेषिक प्रमाणप्रधान दर्शन हैं। न्याय एक प्रकार का भारतीय तर्कशास्त्र है। न्यायसूत्र पर अनेक प्रसिद्ध टीकाएँ हैं। गंगेश उपाध्याय (12वीं शताब्दी) की "तत्वचिंतामणि" से नवद्वीप में नव्य न्याय की परंपरा का आरंभ हुआ। न्यायदर्शन के पहले ही सूत्र में 16 पदार्थों का उल्लेख है। इनके द्वारा तत्वज्ञान होता है जो नि:श्रेयस अथवा मोक्ष का साधन है। प्रमाणों को विशेष विस्तार न्यायदर्शन में मिलता है। ईश्वरभक्ति को न्याय में मोक्ष का साधन माना गया है। वैशेषिक दर्शन एक प्रकार से न्याय का समान तंत्र है। विशेष अथवा परमाणु उसका मुख्य विषय है। परमाणु सृष्टि का मूल उपादान कारण है। ईश्वर को न्याय-वैशेषिक-दशर्न सृष्टि का निमित्त कारण मानते हैं। वैशेषिक दर्शन में संपूर्ण सत्ता को सात पदार्थों में विभाजित किया गया है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव। न्याय के 16 पदार्थों की अपेक्षा अधिक संगत होने के कारण यही विभाजन आगे चलकर अधिक मान्य हुआ तथा न्याय-वैशेषिक-दर्शन की उस संयुक्त परंपरा का आधार बना जिसका प्रतिनिधित्व "न्यायमुक्तावली" आदि अर्वाचीन ग्रंथ करते हैं।
षड्दर्शनों में अंतिम दो दर्शनों को "मीमांसा" कहा जाता है। ये पूर्वमींमांसा और उत्तरमीमांसा कहलाती हैं। अन्य दर्शनों की अपेक्षा इनका वेदों से अधिक घनिष्ठ संबंध है। एक प्रकार से ये वैदिक दर्शन की व्याख्याएँ हैं। पूर्वमीमांसा, मंत्रसंहिता और ब्राह्मणों के कर्मकांड की व्याख्या है। उत्तरमीमांसा उपनिषदों के अध्यात्मदर्शन का तार्किक विवेचन है। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को "वेदांत" कहते हैं। उत्तर मीमांसा का नाम भी "वेदांत" है। इन दोनों मीमांसाओं के सिद्धांतों का आधार वेदों में है, किंतु व्यवस्थित दर्शनों के रूप में इनका आरंभ अन्य दर्शनों के साथ साथ ही ईसा के जन्म के आसपास हुआ। इसीलिए इनकी गणना षड्दर्शनों में की जाती है। दोनों मीमांसाओं के इतिहास के तीन चरण हैं। तीनों ही चरणों में इनका विकास एक ही पूर्वोत्तर क्रम में हुआ। वैदिक युग में वेदों के पूर्वभाग (संहिता, ब्राह्मण) में कर्मकांड का विधान हुआ। वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) में अध्यात्म की प्रतिष्ठा हुई। ईसा की आरंभिक शताब्दी में जैमिनि और बादरायण के "मीमांसासूत्र" तथा "ब्रह्मसूत्र" भी संभवत: इसी क्रम में रचे गए। ईसा की सातवीं शताब्दी में कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य ने इसी पूर्वापर क्रम में पूर्व और उत्तरमीमांसाओं का उद्धार एवं प्रचार किया।
अनात्मवादी होने के कारण बौद्धदर्शन का आत्मवादी वैदिक दर्शन से विरोध है। वैदिक धर्म के विरुद्ध क्रांति के रूप में ही ईसवी पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का उदय हुआ था। अनेक कारणों से ईसा की छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा। उसी समय कुमारिल और शंकराचार्य ने वैदिक धर्म के दोनों पक्षों की प्रतिष्ठा की। इनके बाद पार्थसारथि मिश्र (14वीं शताब्दी) तथा माधवचार्य (14वीं शताब्दी) न पूर्वमीमांसा दर्शन का विस्तार किया। माधवाचार्य विजयनगर के राजा वुक्का के मंत्री थे। बाद में संन्यास लेकर विद्यारण्य के नाम से श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य पद पर आसीन हुए और "पंचदशी" नामक प्रद्धि वेदांत ग्रंथ की रचना की। वेदांतमत की प्रतिष्ठा के लिए शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर जिन चार पीठों की स्थापना की उनमें श्रृंगेरी पीठ दक्षिण में नीलगिरि पर्वत पर स्थित है। अन्य तीन पीठ पुरी, बदरिकाश्रम और द्वारका में हैं। शंकराचार्य ने उपनिषदों, ब्रह्मसूत्र और गीता पर भाष्यों की रचना की। शंकराचार्य के बाद वाचस्पति मिश्र (9वीं शताब्दी), श्री हर्ष (12वं शताब्दी) आदि आचार्यों ने वेदांत परंपरा का विस्तार किया।
पूर्वमीमांसा का मुख्य लक्ष्य वैदिक कर्मकांड की व्यवस्था करना है। इसके अनुसार वेदमंत्रों का मुख्य अर्थ विधि अथवा कर्म के आदेश में है। जिन मंत्रों में विधिवाचक क्रिया नहं है वे "अर्थवाद" हैं तथा देवताओं आदि की प्ररोचना करते हैं। यदि यज्ञादि कर्म से एक दिव्य शक्ति उत्पन्न होती है जिसे "अपूर्व" कहते हैं। यही अपूर्व कर्मफल का नियामक है। पूर्वमीमांसा में ईश्वर मान्य नहीं है। वेद नित्य और अपौरुषेय हैं। नित्य शब्द का कल्प कल्प में यथापूर्व स्फोट होता है और अपूर्व की शक्ति से यथापूर्व सृष्टि की उत्पत्ति होती है। पूर्वमीमांसा की आत्मा वैशेषिक के समान चेतनातीत है। न्याय दर्शन के चर प्रमाणों के अतिरिक्त अर्थापत्ति और अनुपलब्धि दो प्रमाण और मीमांसा दर्शन में माने जाते हैं।
उत्तर मीमांसा वेदों के उत्तर भाग (उपनिषदों) पर आश्रित है। उपनिषद् वेदों के अंतिम भाग हैं, अत: वे वेदांत कहलाते हैं। उत्तर मीमांसा का अधिक प्रसिद्ध नाम "वेदांत" ही है। ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों की व्याख्याओं के द्वारा वेदांत का विस्तार हुआ है। अनेक आचार्यों ने भिन्न भिन्न दृष्टिकोण से ब्रह्मसूत्रों और उपनिषदों की व्याख्या की है। आचार्यों के विभिन्न मतों के आधार पर वेदांत के अनेक संप्रदाय बन गए। ये अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत आदि के नाम से प्रसिद्ध हैं। वेदांत के ये संप्रदाय सांख्य आदि की भाँति दार्शनिक नहीं हैं; इन सभी संप्रदायों के धार्मिक पीठ देश के विभिन्न स्थानों में प्रतिष्ठित हैं। इन पीठों की आचार्य-परंपरा आज तक अक्षुण्ण चली आ रही है।
वेदांत के इन अनेक संप्रदायों में शंकराचार्य का अद्वैतमत सबसे प्राचीन है। यह संभवत: सबसे अधिक प्रतिष्ठित भी है। शंकराचार्य का अद्वैतवाद उपनिषदों पर आश्रित है। उनके अनुसार ब्रह्म ही एक मात्र सत्य है। जगत् का विक्षेप और जीव के ब्रह्मभाव का आवरण करती है। अज्ञान का निवारण होने पर जीव को अपने ब्रह्मभाव का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। ब्रह्म सच्चिदानंद है। ब्रह्म की सत्ता और चेतना तथा उसका आनंद अनंत है। जागृत, स्वप्न और सुषुप्त की अवस्थाओं से परे तथा बाह्य और आंतरिक विषयों से अतीत अनुभव में ब्रह्म का प्रकाश होता है। विषयातीत होने के कारण ब्रह्म अनिर्वचनीय है। संख्यातीत होने के कारण उसे "अद्वैत" कहा जाता है। त्याग और प्रेम के व्यवहारों में यह अद्वैत भाव विभासित होता है। समाधि में इसका आंतरिक साक्षात्कार होता है। अद्वैत भाव को सिद्ध करने के लिए ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है। ब्रह्म को जगत् का उपादान कारण मानकर दोनों का अद्वैत सिद्ध हो जाता है। उपादान के परिणाम की आशंका को विवर्तवाद के द्वारा दूर किया गया है। विवर्तकारण अविकार्य होता है। उसका कार्य मिथ्या होता है जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम। रज्जु सर्प और स्वप्न प्रातिभासिक सत्य हैं। जगत् व्यावहारिक सत्य है। मोक्ष पर्यंत वह मान्य है। ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है जो मोक्ष में शेष रह जाता है। माया से युक्त ब्रह्म "ईश्वर" कहलाता है। वह सृष्टि का कर्ता है किंतु वह पारमार्थिक सत्य नहीं है। ब्रह्मानुभव का साधन ज्ञान है। कर्म के साध्य शाश्वत नहीं होते। "ब्रह्म" कर्म के द्वारा साध्य नहीं है। कर्म और भक्ति मोक्ष के सहकारी कारण हैं। श्रवण, मनन और निदिध्यासन मोक्षसाधना के तीन चरण हैं। मोक्ष में आत्मा समस्त बंधनों से मुक्त हो जाती है और अनंत आनंद से आप्लावित रहती है। यह मोक्ष जीवनकाल में प्राप्य है तथा जीवन के व्यवहार से इसकी पूर्ण संगति है।
शंकराचार्य के लगभग 300 वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने ब्रह्मसूत्रों की नवीन व्याख्या के आधार पर विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना की। रामानुजकृत "श्रीभाष्य" के आधार पर यह श्रीसंप्रदाय कहलाता है। रामानुज शंकर के मायावाद को नहीं मानते। उनके अनुसार जीव, जगत् और ब्रह्म तीनों पारमार्थिक सत्य हैं। जगत् ब्रह्म का विवर्त नहीं वरन् ब्रह्म की वास्तविक रचना है। ब्रह्म और ईश्वर एक दूसरे के पर्याय हैं। जीव ब्रह्म का अंश है। मोक्ष में जगत् का विलय नहीं होता और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व बना रहता है। ब्रह्म निर्विशेष और निर्गुण नहीं वरन् सविशेष्य और सगुण है। ब्रह्म ही स्वतंत्र सत्ता है। जीव और जगत् उसके अपृथक्सिद्ध विशेषण हैं। ब्रह्म से पृथक् उनका अस्तित्व संभव नहीं है। अत: रामानुज का मत भी अद्वैत ही है। जीव और जगत् के विशेषणों से युक्त ब्रह्म का इनके सथ विशिष्ट अद्वैतभाव है। ब्रह्म इनका अंतर्यामी स्वामी है। रामानुज के मत में भक्ति मोक्ष का मुख्य साधन है। भगवान् के गुणों का ज्ञान भक्ति का प्रेरक है। साधारण जन और शूद्रों के लिए प्रपत्ति अर्थात् शरणागति सर्वोत्तम मार्ग हैं।
रामानुज के कुछ वर्ष बाद 11वीं शताब्दी में ही निंबार्काचार्य ने द्वैताद्र्वत मत की प्रतिष्ठा की। ब्रह्मसूत्रों पर "वेदांत-पारिजात-सौरभ" नाम से उनका भाष्य इस मत का आधार है। रामानुज के समान निंबार्क भी जीव और जगत् को सत्य तथा ब्रह्म का आश्रित मानते हैं। रामानुज के मत में अद्वैत प्रधान है। निंबार्क मत में द्वैत का अनुरोध अधिक है। रामानुज के अनुसार जीव और ब्रह्म में स्वरूपगत साम्य है, उनकी शक्ति में भेद हैं। निंबार्क के मत में उनमें स्वरूपगत भेद है। निंबार्क के अद्वैत का आधार जीव की ब्रह्म पर निर्भरता है। निंबार्क का ब्रह्म सगुण ईश्वर है। कृष्ण के रूप में उसकी भक्ति ही मोक्ष का परम मार्ग है। यह भक्ति भगवान् के अनुग्रह से प्राप्त होती है। भक्ति से भगवान् का साक्षात्कार होता है। यही मोक्ष है। रामानुज और निंबार्क दोनो के मत में विदेह मुक्ति ही मान्य है।
निंबार्क के बाद 13वीं शताब्दी में मध्वाचार्य ने द्वैत मत का प्रतिपादन किया। वे पूर्णप्रज्ञ तथा आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैत और निंबार्क के द्वैताद्वैत का खंडन करके द्वैतवाद की स्थापना की है। उनके अनुसार भेद और अभेद दोनों की एकत्र स्थति संभव नहीं है। शंकराचार्य का मायावाद भी उन्हें मान्य नहीं है। जगत् मिथ्या नहीं यथार्थ है। सत् और असत् से भिन्न माया की तीसरी अनिर्वचनीय कोटि संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और जगत् तीनों एक दूसरे से भिन्न हैं। भेद के पाँच प्रकार हैं। ईश्वरजीव, ईश्वर-जगत्, जीव-जगत्, जीव-जीव और जड़ पदार्थों में परस्पर भेद है। ईश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, निमित्त कारण है। उपादान करण प्रकृति है। ईश्वर उसका नियामक है। ईश्वर की भक्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है। मुक्त जीवों में परस्पर भेद रहता है। वे ईश्वर से भिन्न रहकर अपनी सामथ्र्य के अनुसार ईश्वर की विभूति में भाग लेते हैं।
15वीं शताब्दी में वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत मत का प्रचार किया। इस मत का आधार "ब्रह्मसूत्रों" पर लिखित वल्लभाचार्य का "अणुभाष्य" है। वे माया से अलिप्त शुद्ध ब्रह्म का अद्वैत भाव मानते हैं। यह ब्रह्म निर्गुण नहीं, सगुण है तथा माया के संबंध से रहित है। ब्रह्म अपनी अनंत शक्ति से जगतृ के रूप में व्यक्त होता है। चित् और आनंद का तिरोधान होने के कारण जगत् में केवल सत् रूप से ब्रह्म की अभिव्यक्ति होती है। जीव और ब्रह्म स्वरूप से एक हैं। अग्नि के स्फुर्लिगों की भांति जीव ब्रह्म का अंश है, विशेषण नहीं। इस प्रकार सर्वत्र अद्वैत है, कहीं भी द्वैत नहीं। मर्यादा और पुष्टि दो प्रकार की भक्ति मोक्ष का साधन हैं।
16वीं शताब्दी में चैतन्य महाप्रभु ने "अचिंत्य भेदाभेद" का प्रवर्तन किया। उनके शिष्य रूप गोस्वामी ने गौडीय वैष्णव संप्रदाय का प्रतिष्ठापन किया। इनके अनुसार भगवान् की शक्ति अचिंत्य है। वह विरोधी गुणों का समन्वय कर सकती है। भेदाभेद का चिंतन न करके मोक्ष की साधना करना ही जीवन का धर्म है। मोक्ष का अर्थ भगवान् की प्रीति का निरंतर अनुभव है।
इस प्रकार वैदिक युग के उत्तरकाल में उपनिषदों में जिस वेदांत का उदय हुआ उसका नवीन उत्थान सातवीं शताब्दी से लेकर 16वीं शताब्दी तक अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, शुद्धाद्वैत आदि संप्रदायों के रूप में हुआ। उपनिषदों का वेदांत पश्चिमी और उत्तरीय भारत की देन है। अद्वैत आदि संप्रदायों का उदय दक्षिण से हुआ। इनके प्रवर्तक दक्षिण देशों के निवासी थे। चैतन्य का मत बंगाल से उदित हुआ। किंतु इन सभी संप्रदायों ने वृदांवन आदि उत्तरी स्थानों में अपने पीठ बनाए। शंकराचार्य ने देश के चारों कोनों पर पीठ स्थापित किए। उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम सभी प्रदेशों के लोग इन संप्रदायों में सम्मिलित हुए। सिद्धांत में भिन्न होते हुए भी वेदांत के ये विभिन्न संप्रदाय भारतवर्ष की आंतरिक एकता के सूत्र बने।

वैदिक दर्शनों का संक्षिप्त परिचय
न्याय दर्शन
महर्षि गौतम रचित इस दर्शन में पदार्थों के तत्वज्ञान से मोक्ष प्राçप्त का वर्णन है। पदार्थों के तत्वज्ञान से मिथ्या ज्ञान की निवृत्ति होती है। फिर अशुभ कर्मो में प्रवृत्त न होना, मोह से मुक्ति एवं दुखों से निवृत्ति होती है। इसमें परमात्मा को सृष्टिकर्ता, निराकार, सर्वव्यापक और जीवात्मा को शरीर से अलग एवं प्रकृति को अचेतन तथा सृष्टि का उपादान कारण माना गया है और स्पष्ट रूप से त्रैतवाद का प्रतिपादन किया गया है। इसके अलावा इसमें न्याय की परिभाषा के अनुसार न्याय करने की पद्धति तथा उसमें जय-पराजय के कारणों का स्पष्ट निर्देश दिया गया है।
वैशेषिक दर्शन
महर्षि कणाद रचित इस दर्शन में धर्म के सच्चे स्वरूप का वर्णन किया गया है। इसमें सांसारिक उन्नति तथा निश्श्रेय सिद्धि के साधन को धर्म माना गया है। अत: मानव के कल्याण हेतु धर्म का अनुष्ठान करना परमावश्यक होता है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष और समवाय इन छ: पदाथों के साधम्र्य तथा वैधम्र्य के तत्वाधान से मोक्ष प्राप्ति मानी जाती है। साधम्र्य तथा वैधम्र्य ज्ञान की एक विशेष पद्धति है, जिसको जाने बिना भ्रांतियों का निराकरण करना संभव नहीं है। इसके अनुसार चार पैर होने से गाय-भैंस एक नहीं हो सकते। उसी प्रकार जीव और ब्रह्म दोनों ही चेतन हैं। किंतु इस साधम्र्य से दोनों एक नहीं हो सकते। साथ ही यह दर्शन वेदों को, ईश्वरोक्त होने को परम प्रमाण मानता है।
सांख्य दर्शन
इस दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इसमें सत्कार्यवाद के आधार पर इस सृष्टि का उपादान कारण प्रकृति को माना गया है। इसका प्रमुख सिद्धांत है कि अभाव से भाव या असत से सत की उत्पत्ति कदापि संभव नहीं है। सत कारणों से ही सत कार्यो की उत्पत्ति हो सकती है। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि रचना और संहार के क्रम को विशेष रूप से मानता है। साथ ही इसमें प्रकृति के परम सूक्ष्म कारण तथा उसके सहित ख्ब् कार्य पदाथों का स्पष्ट वर्णन किया गया है। पुरुष ख्भ् वां तत्व माना गया है, जो प्रकृति का विकार नहीं है। इस प्रकार प्रकृति समस्त कार्य पदाथो का कारण तो है, परंतु प्रकृति का कारण कोई नहीं है, क्योंकि उसकी शाश्वत सत्ता है। पुरुष चेतन तत्व है, तो प्रकृति अचेतन। पुरुष प्रकृति का भोक्ता है, जबकि प्रकृति स्वयं भोक्ती नहीं है।
योग दर्शन
इस दर्शन के रचयिता महर्षि पतंजलि हैं। इसमें ईश्वर, जीवात्मा और प्रकृति का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है। इसके अलावा योग क्या है, जीव के बंधन का कारण क्या है? चित्त की वृत्तियां कौन सी हैं? इसके नियंत्रण के क्या उपाय हैं इत्यादि यौगिक क्रियाओं का विस्तृत वर्णन किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार परमात्मा का ध्यान आंतरिक होता है। जब तक हमारी इंद्रियां बहिüगामी हैं, तब तक ध्यान कदापि संभव नहीं है। इसके अनुसार परमात्मा के मुख्य नाम ओ३म् का जाप न करके अन्य नामों से परमात्मा की स्तुति और उपासना अपूर्ण ही है।
मीमांसा दर्शन
इस दर्शन में वैदिक यज्ञों में मंत्रों का विनियोग तथा यज्ञों की प्रक्रियाओं का वर्णन किया गया है। इस दर्शन के रचयिता महर्षि जैमिनि हैं। यदि योग दर्शन अंत: करण शुçद्ध का उपाय बताता है, तो मीमांसा दर्शन मानव के पारिवारिक जीवन से राष्ट्रीय जीवन तक के कत्तüव्यों और अकत्तüव्यों का वर्णन करता है, जिससे समस्त राष्ट्र की उन्नति हो सके। जिस प्रकार संपूर्ण कर्मकांड मंत्रों के विनियोग पर आधारित हैं, उसी प्रकार मीमांसा दर्शन भी मंत्रों के विनियोग और उसके विधान का समर्थन करता है। धर्म के लिए महर्षि जैमिनि ने वेद को भी परम प्रमाण माना है। उनके अनुसार यज्ञों में मंत्रों के विनियोग, श्रुति, वाक्य, प्रकरण, स्थान एवं समाख्या को मौलिक आधार माना जाता है।
वेदांत दर्शन
वेदांत का अर्थ है वेदों का अंतिम सिद्धांत। महर्षि व्यास द्वारा रचित इस दर्शन को ब्रह्म सूत्र अथवा उत्तर मीमांसा भी कहते हैं। इस दर्शन के अनुसार ब्रह्म जगत का कर्ता-धर्ता व संहार कर्ता होने से जगत का निमित्त कारण है। उपादान अथवा अभिन्न कारण नहीं। ब्रह्म सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, आनंदमय, नित्य, अनादि, अनंतादि गुण विशिष्ट शाश्वत सत्ता है। साथ ही जन्म मरण आदि क्लेशों से रहित और निराकार भी है। इस दर्शन के प्रथम सूत्र `अथातो ब्रह्म जिज्ञासा´ से ही स्पष्ट होता है कि जिसे जानने की इच्छा है, वह ब्रह्म से भिन्न है, अन्यथा स्वयं को ही जानने की इच्छा कैसे हो सकती है। और यह सर्वविदित है कि जीवात्मा हमेशा से ही अपने दुखों से मुक्ति का उपाय करती रही है। परंतु ब्रह्म का गुण इससे भिन्न है।
शैव और शाक्त संप्रदाय
वैदिक और अवैदिक दर्शनों के अतिरिक्त भारतीय दर्शन परंपरा में एक तीसरी धारा शैव तथा शाक्त संप्रदायों की प्रवाहित होती रही है। कुछ रहस्यमय साधना के रूप में होने के कारण यह वैदिक और अवैदिक धाराओं के संगम में कुछ सरस्वती के समान गुप्त रही है। किंतु प्रत्यक्ष उपासना के रूप में भी शिव की मान्यता बहुत है। प्राचीन ऐतिहासिक खोजों से शिव की प्राचीनता प्रमाणित होती है। गाँव गाँव में शिव के मंदिर हैं। प्रति सप्ताह और प्रति पक्ष में शिव का व्रत होता है। महादेव पार्वती का दिव्य दांपत्य भारतीय परिवारों में आदर्श के रूप से पूजित होता है। ऋग्वेद और यजुर्वेद के रुद्र के रूप में शिव का वर्णन है। किंतु प्राय: शिव को अवैदिक लोकदेवता माना जाता है। दक्ष के यज्ञघ्वंस के प्रसंग के द्वारा शिव की अवैदिकता का समर्थन किया जाता है पौराणिक युग में भी त्रिदेवों की तुलना के प्रसंग में विरोध के आभास मिलते हैं। किंतु आगे चलकर शिव एक अत्यंत लोकप्रिय देवता बन गए। शैव संप्रदाय प्राय: गुप्त तंत्रों के रूप में रहे हैं। उनका बहुत कम साहित्य प्रकाशित है। प्रकाशित साहित्य भी प्रतीकात्मक होने के कारण दुरूह है। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा दक्षिणी मत अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्हें शैव परंपरा के षड्दर्शन कह सकते हैं। शैव सिद्धात का प्रचार दक्षिण में तमिल देश में है। इसका आधार आगम ग्रंथों में है। 14वीं शताब्दी में नीलकंठ ने "ब्रह्मसूत्रों" पर शैवभाष्य की रचना कर वेदांत परंपरा के साथ शैवमत का समन्वय किया। पाशुपत मत नकुलीश पाशुपत के नाम से प्रसिद्ध है। पाशुपत सूत्र इस संप्रदाय का मूल ग्रंथ है। कालामुख और कापालिक संप्रदाय कुछ भयंकर और रहस्यमय रहे हैं। काश्मीर शैव मत अद्वैत वेदांत के समान है। तांत्रिक होते हुए भी इनका दार्शनिक साहित्य विपुल है। इसकी स्पंद और प्रत्यभिज्ञा दो शाखाएँ हैं। एक का आधार वसुगुप्त की स्पंदकारिका और दूसरी का आधार उनके शिष्य सोमानंद (9वीं शती) का "प्रत्यभिज्ञाशास्त्र" है। जीव और परमेश्वर का अद्वैत दोनों शाखाओं में मान्य है। परमेश्वर "शिव" वेदांत के ब्रह्म के ही समान हैं। वीरशैव मत दक्षिण देशों से प्रचलित है। इनके अनुयायी शिवलिंग धारण करते हैं। अत: इन्हें "लिंगायत" भी कहते हैं। 12वीं शताब्दी में वसव ने इस मत का प्रचार किया। वीरशैव मत एक प्रकार का विशिष्टाद्वैत है। शक्ति विशिष्ट विश्व को परम तत्व मानने के कारण इसे शक्ति विशिष्टाद्वैत कह सकते हैं। उत्तर और दक्षिण में प्रचलित शैव संप्रदाय भी उत्तर वेदांत संप्रदायों की भाँति भारत की धार्मिक एकता के सूत्र हैं। कैलास से रामेश्वरम् तक पूजित शिव भारतीय एकता के मंगल देवता है। दोनों की यात्राओं के द्वारा भारतीय एकता का व्यावहारिक अनुष्ठान होता है।
शक्तिपूजा का स्त्रोत संभवत: प्राचीन भारत के मातृतंत्र में है। भारतीय परिवारों में देवी की महिमा बहुत है। स्त्रियों के नाम में प्राय: उत्तरपद के रूप में "देवी" शब्द का प्रयोग होता है। शक्ति के अनेक रूप हैं। लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती काली, आदि के रूप में देवी की उपासना होती है। "शक्ति" इच्छारूप है। शिवसूत्र में इच्छाशक्ति को उमा कुमारी का रूप दिया है (इच्छा शक्ति: उमा कुमारी)। पर तत्व के चिन्मय रूप में इच्छाशक्ति का समन्वय शक्ति दर्शन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।

दर्शन का इतिहास


दर्शन का इतिहास 

सभ्यता के प्रारम्भ से ही दर्शन विद्यावान् लोगों के बीच विशेष अभिरुचि का विषय रहा है। भारत में वेदों एवं उपनिषदों के समय से ही दार्शनिक जिज्ञासा एवं दार्शनिक चिन्तन का ज्ञानपिपासु पृच्छाशील विद्वानों और बुद्धजीवियों के बीच प्रचलित प्रतिष्ठित रहे। उदाहरण के लिए ऋग्वेद में जहाँ-तहाँ सृष्टि के प्रारम्भ, दृश्यमान जगत् के उपादान द्रव्य एवं रचयिता आदि के सम्बन्ध में काव्यात्मक ढंग से प्रश्न उठाये गये। प्रसिद्ध नारदीय सूक्त इस कोटि की प्रश्नाकुलता तथा जिज्ञासा का श्रेष्ठ निदर्शन है। यहाँ ध्यातव्य है कि ऋग्वेद भाषाबद्ध साहित्य का प्रायः सबसे प्राचीन उदाहरण है। ऋग्वेद का रचना-काल प्रायः 3000 से 1500 ई. पू. के बीच माना जाता है। प्राचीनतम उपनिषद् ईसा के आठवीं शती पूर्व की रचनाएँ माने जाते हैं। उनमें आत्मा के स्वरूप आदि से सम्बद्ध जिज्ञासा सर्वत्र मुखरित है। कहना नहीं होगा कि भारतवर्ष में घटित बाद के दर्शनों के विकास पर उपनिषदों का व्यापक और गम्भीर प्रभाव पड़ा।
ध्यान देने योग्य है कि दर्शन के इतिहास में उसकी परिभाषा, स्वरूप और उसकी प्रमुख समस्याओं की अवधारणा में परिवर्तन होते रहे हैं। प्राचीन काल में दार्शनिक चिन्तन के दो प्रमुख केन्द्र बने, एक भारत और दूसरा यूनान। इन दोनों क्षेत्रों में दर्शन की परिभाषा या परिकल्पना तत्त्व-सम्बन्धी मीमांसा अथवा तत्वज्ञान के रूप में की गयी। यहाँ ज्ञातव्य है कि प्राचीन काल में विज्ञानों का, भौतिक विज्ञान का भी, उदय नहीं हो सका था। फलतः विश्व-जगत् और जीवन से सम्बन्धित सारे प्रश्न दर्शन में समाहित होते थे। प्राचीन यूनान में थेलीज़ जैसे विचारकों ने यह प्रश्न पूछा कि दृश्यमान जगत् का मूल उपादान द्रव्य क्या है। विभिन्न दार्शनिकों ने उक्त प्रश्न के अलग-अलग उत्तर दिये। प्राचीन काल में आधुनिक क़िस्म की प्रयोग-विधियों का अविष्कार नहीं हुआ था, न दूरवीक्षण तथा अणुवीक्षण जैसे यन्त्रों का ही। उस युग में ज्ञान का स्रोत चक्षु आदि इन्द्रियाँ थीं, और एक सीमा तक अनुमान करनेवाली बुद्धि। इन्द्रियों के अनुभव के आलोक में यूनान और अपने देश में भी यह कल्पना की गयी कि गोचर वस्तुओं का उपादान कारण पाँच या चार महाभूत हैं। यूनान के प्रारम्भिक विचारकों ने पानी, हवा, अग्नि में से एक या दूसरे महाभूत को मूल तत्त्व घोषित किया, जबकि भारतवर्ष में न्याय वैशेषिक दर्शनों ने पाँचों महाभूतों को मूल तत्त्व स्वीकर किया। उपनिषदों में महाभूतों का स्थान आत्मा या ब्रह्म ने ले लिया और दर्शन का विषय आत्मा के स्वरूप का निर्धारण बन गया। विश्व का मूलतत्व ब्रह्म या आत्मा है और दर्शन का उद्देश्य उक्त आत्मा के ज्ञान का सम्पादन है। इस प्रकार दर्शन को तत्वज्ञान के रूप में प्रकल्पित किया गया। यहाँ ध्यातव्य है कि जहाँ न्याय-वैशेषिक दर्शनों में प्रमेय अनेक हैं, वहाँ वेदान्त कही जाने वाली विचार- पद्धतियों में एकमात्र ज्ञेय तत्त्व आत्मा या ब्रह्म है।
तो, प्राचीनों के अनुसार दर्शन तत्वज्ञान है और आत्माज्ञान या आत्मान्वेषण। दर्शन की दूसरी प्रमुख शाखा ज्ञान-मीमांसा है, जो ज्ञान के स्वरूप और साधनों पर विचार करती है। भारतवर्ष में इस शाखा का सबसे अधिक विकास न्यायदर्शन में हुआ, जिसने प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों को, अर्थात् उनके स्वरूप-निर्धारण को, चिन्तन का ख़ास विषय बनाया। बाहरवीं शताब्दी के बाद तो, तथाकथित नव्य न्याय के प्रवर्तन के बाद, न्याय दर्शन पूर्णतया प्रमाण मीमांसा में समाहित हो गया। आज दर्शन की उक्त परिभाषा, यह कि दर्शन तत्त्वज्ञान या तत्त्व-मीमांसा है, स्वीकार्य नहीं रह गयी है। जिसे हम तत्व कहते हैं, उसके अनेक रूप हैं। विश्व-जगत् में प्रधानता भौतिक तत्व या तत्वों की है। हमारी पृथ्वी, सौरमण्डल और असंख्य तारक-समूह भौतिक तत्वों से निर्मित है; यही बात हमारे शरीर एवं इन्द्रियों पर भी लागू है। आत्मा की सत्ता आज भी सन्दिग्ध बनी हुई है। किन्तु शरीर और भौतिक जगत् के विविध रूपों और निर्मायक तत्वों का अध्ययन विभिन्न भौतिक विज्ञान करते हैं। आज वैशेषिक दर्शन द्वारा दी गयी जल, वायु, अग्नि आदि की परिभाषाएँ प्रारम्भिक जान पड़ती हैं। प्राचीन यूनानी विचारकों और महर्षि कणाद को यह पता नहीं था कि जिसे हम वायु या जल कहते हैं, वह एक रासायनिक तत्त्व नहीं है, अपितु एकाधिक तत्वों का मिश्रण या यौगिक है। ध्यान देने की बात यह है कि यदि हम वेदान्त के इस सिद्धान्त को मानकर न चलें कि विश्व का मूलतत्त्व आत्मा या ब्रह्म है, तो यह स्वीकार करने का कोई कारण नहीं रह जाता कि दर्शन का विषय विश्व का मूल तत्त्व है। विश्व का मूल तत्व एक या अनेक कोटियों के परमाणु भी हो सकते हैं और ऋणात्मक एवं धनात्मक विद्युदणु या विद्युत-तरंगें अथवा चुम्बकीय क्षेत्र या और विद्युत क्षेत्र। निश्चय ही दर्शन इन तत्त्वों का अध्ययन नहीं कर सकता।
दर्शन के इतिहास से एक और बात सामने आती है। कहा गया है कि ‘मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना’ (हर मष्तिक या खोपड़ी में अलग बुद्धि या विचार होते हैं) और यह कि ‘नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्’ (कोई एक भी मुनि नहीं जिसका वचन प्रमाण हो) तात्पर्य यह है कि विभिन्न दार्शनिक विचारकों ने अलग-अलग मत प्रतिपादित किये हैं।
प्राचीन काल में अपने देश में छह आस्तिक और उतने ही नास्तिक दर्शन बने। बाद में वेदान्त कहे जाने वाले दर्शन के अन्तर्गत भी लगभग उतने ही सम्प्रदाय बन गये, शैव-शाक्त दर्शन अलग बने। यदि हम पश्चिम की ओर देखे तो वहाँ प्राचीन यूनानी विचारकों से शुरू करके अब तक कई दर्जन दार्शनिक सम्प्रदाय बन-बिगड़ चुके हैं। यह स्थिति होने के कारण दर्शन के इतिहास में कई बार यह प्रश्न उठाया गया कि दार्शनिकों के बीच ऐसे भयंकर मतभेद क्यों होते हैं। (अपने देश में काफ़ी पूर्व सम्भवत: ईसा की दूसरी शताब्दी में-नागार्जुन ने समस्त व्याख्यात्मक प्रत्ययों या अवधारणाओं का खण्डन करते हुए दर्शन की चिन्तन प्रणाली के आगे प्रश्न-चिह्न लगाया) आधुनिक यूरोपीय दर्शन के जन्मदाता फ्रांस के दार्शनिक देकार्त ने उक्त प्रश्न से उलझते हुए यह प्रतिपादित किया कि दर्शन को गणित की पद्धति अपनानी चाहिए जहाँ संशय-संदेह की कोई गुंजाइश नहीं रहती।
पश्चिम के दार्शनिक-इतिहास में यह प्रश्न बाद में भी कई बार उठाया गया है। इसका प्रमुख कारण विज्ञान की निरन्तर घटित होती हुई प्रगति, जिसने आज की अभूतपूर्व औद्योगिक उन्नति एवं तकनीकी सफलताओं को सम्भव बनाया है, रही है। योरोप के चिन्तकों ने इस प्रश्न पर विचार करते हुए कि दर्शन के क्षेत्र में क्यों निरन्तर मतभेद बने रहते हैं, और क्यों वहाँ विज्ञान की प्रगति होती दिखाई नहीं देती, अनेकविध सुझाव दिये हैं। इस सन्दर्भ में यहाँ प्रसिद्ध दार्शनिक बर्ट्राण्ड रसेल का उल्लेख किया जा सकता है। दर्शन के उस विभाग या शाखा के सामने, जिसे तत्व-मीमांसा कहते हैं, तथाकथित तर्कनिष्ठ अनुभववादियों और भाववादियों (Logical Empiricists or Positivicsts) ने विशेष प्रखर और गम्भीर या ख़तरनाक प्रश्न-चिह्न लगाया। यह सर्वविदित है कि वैज्ञानिक मन्तव्यों की परीक्षा-इन्द्रिय अनुभव में उपलब्ध अर्थात् गोचर तथ्यों की कसौटी पर की जाती है। स्थिति यह है कि परम्परागत तत्व मीमांसा के अधिकांश वक्तव्यों या मन्तव्यों की वैसी परीक्षा सम्भव नहीं है। यही कारण हैं कि तत्त्व-मीमांसा के सिद्धान्त ऐसी अटकल बाजियों का रूप ले लेते हैं, जिनका गोचर तथ्यों से सम्बन्ध नहीं जुड़ पाता। यही मूल कारण है कि प्राचीन कल्पनाविलासी दर्शन परस्पर का खण्डन करते हुए किसी भी मुद्दे पर एकमत नहीं हो पाते। हमारी विश्व-सम्बन्धी अवधारणाओं का सही आधार वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं सिद्धान्त ही हो सकते हैं। कहना नहीं होगा कि वैज्ञानिक अन्वेषण-प्रणाली का महत्त्व उसकी सफलताओं द्वारा निर्मित प्रौद्योगिक तथा तकनीकी प्रगति से प्रमाणित है। तर्कनिष्ठ अनुभववादियों ने परम्परागत दर्शन की आलोचना करते हुए उसे आघात देनेवाली सबसे अधिक तीक्ष्ण बात यह कही कि तत्त्व-मीमांसा के कथन न केवल सही होते हैं, अपितु निरर्थक होते हैं। सार्थक कथन केवल वे हैं जिनका गोचर तथ्यों की कसौटी पर निरीक्षण किया जा सके। चूँकि परम्परित तत्त्व-मीमांसा के वक्तव्य (जैसे, आत्मा अमर है, दुनिया का रचयिता ईश्वर है, हम इस जन्म में पिछले जन्म के कर्मों का फल भोगते हैं, आदि) गोचर अनुभव या इन्द्रियज्ञान द्वारा परीक्षणीय नहीं होते-जैसे कि विज्ञान के कथन होते हैं-इसलिए वे अर्थहीन माने जाने चाहिए। तात्पर्य यह है कि अपने मन्तव्यों की परीक्षा में विज्ञान जिस प्रणाली का उपयोग करता है वही प्रणाली विश्वसनीय ज्ञान दे सकती है। दर्शन वैज्ञानिक अन्वेषण-प्रणाली का आश्रय नहीं लेता, इसलिए उसकी प्रगति होती नहीं दिखाई देती और वह निरन्तर मतभेदों का क्रीड़ाक्षेत्र बना रहता है। निष्कर्ष यह है कि दर्शन का कोई मन्तव्य निश्चयात्मक नहीं हो पाता। दर्शन और युगीन संस्कृति ऊपर हमने तर्कनिष्ठ अनुभववादियों का दर्शनविरोधी मन्तव्य प्रस्तुत किया है। उनके मतानुसार यह कथन कि ‘ईश्वर जगत् का कर्ता है’ अथवा ‘मृत्यु के बाद आत्मा स्वर्ग या नरक में जाती है’ न सही कहा जा सकता है न गलत, वह वास्तव में निरर्थक है।
यहाँ एक अजीब स्थिति सामने आती है। तर्कनिष्ठ अनुभववादियों का उक्त मन्तव्य एक प्रकार का दार्शनिक मतवाद है, न कि वैज्ञानिक। सार्थक कथन की यह परिभाषा और कसौटी कि वह इन्द्रियबोध द्वारा परीक्षणीय हो, स्वयं अपने पर लागू नहीं होती; उक्त कसौटी या परिभाषा किसी गोचर तथ्य द्वारा सत्यापनीय या परीक्षणीय नहीं है। वास्तव में वह एक प्रस्ताव मात्र है। यह प्रस्ताव हमें रुचिकर लगता है तो इसलिए कि आज हम विज्ञान की सफलता से नितान्त अभिभूत महसूस करते हैं। विज्ञान आज के युग का सबसे बड़ा सरोकार और चमत्कार है। वह दर्शन पर हावी है। ध्यातव्य है कि पश्चिम देशों में विज्ञान दर्शन नाम की दर्शन की एक नयी शाखा ही गठित हो गयी है, जिसका विशेष अनुशीलन किया जा रहा है। तथ्य यह है कि किसी भी देश या युग का दर्शन संस्कृति के उस क्षेत्र या उन क्षेत्रों को अपना विषय बनाता है जो उस देश या युग के लोगों को महत्त्वपूर्ण जान पड़ते हैं। उदाहरण के लिए, हमारे देश के प्राचीन काल में बुद्धि सम्पन्न विचारकों का सबसे बड़ा सरोकार मोक्ष था। फलतः यहाँ मोक्ष के सम्बन्ध में नितान्त गम्भीर और विविध चिन्तन हुआ। सांख्य और वेदान्त ने मोक्ष की एक अवधारणा पल्लवित की, जैनों और बौद्धों ने दूसरी अवधारणाएँ निरूपित कीं। उक्त तीनों के अनुसार किसी-न-किसी रूप में जीव-मुक्ति सम्भव है, जबकि रामानुज आदि भक्त दार्शनिकों के मत में वैसी मुक्ति सम्भव नहीं है। इसी प्रकार मोक्ष के साधनों के बारे में अनेक मत प्रतिपादित किये गये और अनेक मार्गों की सिफ़ारिश की गयी-जैसे ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग, योगमार्ग और अनेकविध तान्त्रिक साधनाएँ। राजनीति के क्षेत्र में हमारे देश में प्रायः राजतंत्र चला। यूनान में मुख्यतः गणराज्य विकसित हुए। फलतः वहाँ के दार्शनिकों ने राज्य के स्वरूप और आदर्शों पर अनेकविध चिन्तन किया। वर्तमान योरप में भी जनतन्त्र, समाजवाद, साम्यवाद, आदि अनेक राजनीतिक विचारधाराओं का प्रतिपादन हुआ। पश्चिमी देशों में यूनानियों के समय से ही नीतिशास्त्र एक महत्वपूर्ण दार्शनिक अनुशासन रहा है। अपने देश के दार्शनिक मोक्ष-दर्शन में इतनी अधिक रुचि लेते थे कि उन्होंने नैतिकता तथा राज्य-सम्बन्धी प्रश्नों को महत्त्व नहीं दिया। कर्तव्याकर्तव्य, राज्य आदि के सम्बन्ध में सोचने का भार स्मृतिकारों पर डाल दिया गया, जो चिन्तन एवं विमर्श की अपेक्षा उपदेश ही अधिक करते रहे।
अनुक्रम
• १ दर्शन की भारतीय अवधारणा
• २ क्या दर्शन आत्मज्ञान है ?
• ३ दर्शन का प्रस्थान बिन्दु
• ४ इन्हें भी देखें
• ५ बाहरी कड़ियाँ

दर्शन की भारतीय अवधारणा
ऊपर हमने तर्कनिष्ठ अनुभववाद का जिक्र किया । तत्त्व-दर्शन का निराकरण करते हुए उक्त वाद के समर्थकों ने दर्शन को पुनः परिभाषित किया। उनके अनुसार दर्शन का कार्य प्रत्ययात्मक विश्लेषण (conceptual analysis) है। दर्शन विभिन्न प्रत्ययों एवं वाक्यों या प्रकथनों का विश्लेषण इस दृष्टि से करता है कि उनका इन्द्रिय अनुभव अथवा गोचर जगत से सम्बन्ध स्पष्ट किया जाये। जिस कथन का सम्बन्ध गोचर जगत से नहीं दिखाया जा सकता, उसके बारे में यह शंका होनी चाहिए कि वह सार्थक भी है या नहीं। उसी प्रकार विभिन्न दूसरे सम्प्रत्ययों का भी विश्लेषण होना चाहिए। व्यवहार में तर्कनिष्ठ अनुभववादियों ने अपना ध्यान मुख्यतया विज्ञान के प्रत्ययों और कथनों पर केन्द्रित किया। उनके मत में नीतिशास्त्र, धर्म आदि के क्षेत्रों से सम्बन्धित कथन अनुभव-जगत से सम्बन्ध न रखने के कारण दार्शनिक विश्लेषण का विषय नहीं होते; दर्शन वैसे कथनों की निरर्थकता ही संकेतित कर सकता है। दूसरे महायुद्ध का अन्त होते-होते तर्कनिष्ठ अनुभववाद स्वयं ही निराकृत होने लगा। विचारकों ने यह पाया कि जहाँ एक ओर उक्त सिद्धान्त आन्तरिक विसंगतियों से पीड़ित है, वहीं दूसरी ओर वह हमारे नैतिक निर्णयों के बारे में कोई प्रामाणिक कथन करने में हिचकता है। मानव-जाति की नैतिक एवं अध्यात्मिक जरूरतों और अनुभवों की उपेक्षा करने वाला दर्शन कालान्तर में स्वयं को बदनाम कर लेता है। यह कहना काफ़ी नहीं कि हमारे नैतिकता-सम्बन्धी कथन ऐन्द्रियबोध द्वारा सत्यापनीय या परीक्षणीय नहीं हैं और इसलिए निरर्थक हैं। नैतिकता के बिना मनुष्य अर्थपूर्ण (विशेषतः सामाजिक) जीवन नहीं जी सकता। यही बात आध्यात्मिक तथा सौन्दर्यपरक मूल्यों पर लागू होती है। वास्तव में दर्शन जीवन-मूल्यों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसकी दृष्टि में वैज्ञानिक बोध भी एक प्रकार का मूल्य है, किन्तु वह बोध एकमात्र मूल्य नहीं है।
सम्प्रत्ययों (concepts) का स्पष्टीकरण भी सरल व्यापार नहीं है। तर्कनिष्ठ अनुभववाद के विरुद्ध इग्लैंण्ड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में एक अन्य दार्शनिक सम्प्रदाय का उदय हुआ जो प्रत्ययों आदि के विश्लेषणात्मक बोध के लिए बोलचाल की भाषा का आश्रय लेता है। यहाँ इन विभिन्न दार्शनिक सम्प्रदायों का विवरण देना अभीष्ट नहीं है। इस सन्दर्भ में हम दो एक अपेक्षित बातें कहकर आगे बढ़ेंगे। हम मानते हैं कि किसी भी प्रत्यय या अवधारणा का विश्लेषण खास प्रयोजन या दृष्टि का अपेक्षी होता है। हमारी मान्यता है कि दर्शन की विशेष दृष्टि मूल्य-परक होती और होनी चाहिए। उदाहरण के लिए हम कारणता के प्रत्यय का विश्लेषण इस दृष्टि से करते हैं कि ज्ञान-प्राप्ति के अनुष्ठान में हम उसकी उपयोगिता और महत्त्व को ठीक-ठाक आँक सकें। किसी कथन के ठीक अभिप्राय का निश्चय, जो विश्लेषण द्वारा सम्भव होता है, यह जानने के लिए किया जाता है कि वह कथन कहाँ तक यथार्थ या वास्तविकता को पकड़ता या पकड़ पाता है। वैज्ञानिक बोध का विश्लेषण भी इसी दृष्टि से किया जाता है-अर्थात यथार्थ की सम्बद्धता में उसकी सत्यता या सत्यांश का निर्धारण करने के लिए। जिसे हम विज्ञान-दर्शन कहते हैं उसका, दर्शन की निजी दृष्टि में यही उपयोग है कि वह वैज्ञानिक शोध के स्वरूप और सीमाओं की समुचित अवगति या जानकारी दे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दर्शन का मुख्य कार्य विभिन्न कोटियों के बोधों या अनुभवों की समीक्षात्मक अवगति है। यहाँ याद रखना चाहिए कि दर्शन उसी अनुभव का विचार कर सकता है जो भाषाबद्ध किया जा चुका है, अर्थात् प्रकथनों के रूप में प्रकट हो चुका है।
किन्तु विज्ञान-दर्शन, जो वैज्ञानिक बोध की समीक्षा करता है, विज्ञान की सहायक विद्या मात्र नहीं है। दर्शन का उद्देश्य साक्षात् रूप में वैज्ञानिक अन्वेषणों को अग्रसर करना भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि दर्शन नामक विद्या विज्ञान की परिचारिका भर नहीं है। माना जा सकता है कि वैज्ञानिक अन्वेषण महत्त्वपूर्ण वस्तु है, आज के युग में यह बात स्वयं सिद्ध जान पड़ती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वर्तमान युग में जीवन के दूसरे मूल्यों और उनका अन्वेषण महत्वपूर्ण नहीं रहे। हम जानते हैं कि काव्य, कला, संगीत तथा नैतिकता मानव-जीवन के लिए सदा से महत्त्वपूर्ण रहे हैं और आगे भी रहेंगे। दर्शन हमारे सभी ऐसे मूल्यों के स्वरूप का विचार करता है जो मानव एवं जीवन को गुणात्मक उत्कर्ष देने वाले हैं। हम मानते हैं कि वैज्ञानिक शोध एवं चिन्तन भी केवल व्यावहारिक दृष्टि से उपयोगी नहीं हैं, वे मानव बुद्धि या मस्तिष्क को गुणात्मक वैशिष्ट्य भी प्रदान करते हैं। वास्तव में वह प्रत्येक क्रिया को, जो केवल उपयोगिता के लिए नहीं होती अपितु मानव-व्यक्तित्व को गुणात्मक उत्कर्ष देने वाली होती है, दर्शन का विषय है। उपयोगी क्रियाएँ धन-सम्पत्ति तथा शक्ति के लिए अनुष्ठित होती हैं। वे मुख्यतः मनुष्य के भौतिक तथा जैवी जीवन को प्रभावित करती हैं, वे खास तरह के मनोभावों की पुष्टि के लिए ही हितकर होती हैं। किन्तु वे व्यक्तित्व का गुणात्मक विकास करती हैं, इसमें सन्देह है। हमारे व्यक्तित्व का वैसा विकास निष्काम भाव से ज्ञान-सम्पादन, नैतिक कर्म (जिसका उद्देश्य न्याय- धर्म की रक्षा एवं परहित-साधन होता है) तथा काव्य- साहित्य एवं कलाओं के आस्वाद द्वारा घटित होता है। हम मानते हैं कि दर्शन का कार्य उन सब मानवीय क्रियाओं की समीक्षित चेतना है, जिनका लक्ष्य गुणात्मक उत्कर्ष की प्राप्ति है-अथवा ऐसे आनन्द की प्राप्ति जो व्यक्तित्व की गुणात्मक ऊर्ध्व गति से सहचरित रहता है। विशेषतः काव्य-साहित्य और विभिन्न विद्याओं का अनुशीलन उक्त कोटि की क्रियाएँ हैं।
नैतिक कर्तव्य का पालन प्रायः सदैव सन्तोषकर होता है, भले ही उस कर्तव्य पालन के लिए धन, समय, शक्ति आदि का कष्टकर व्यय करना पड़े। कर्तव्य-पालन का सुख दूसरे सुखों से भिन्न कोटि का होता है। वह अन्तरात्मा का सुख होता है। जो महाप्राण व्यक्ति को अपने स्वार्थ का हनन करके परहित-साधना करता है, उसे ख़ास तरह का आनन्द होता है। गुणात्मक दृष्टि से यह आनन्द उच्चतर नैतिक धरातल पर संक्रमण या विचरण करने का आनन्द है। तात्पर्य यह है कि स्वभावतः अपनी चेतना-वृत्तियों के उत्थान की कामना करता है। जब कोई ग्रन्थ, कलाकृति या शास्त्रीय आलेख हमारी चेतनाओं को वैसे उन्नयन या उत्थान का अवसर देता है तो वह रुचिकर एवं आनन्दप्रद प्रतीत होता है।
हमारी धारणा के अनुसार उक्त कोटि के गुणात्मक प्रभेदों को देखना, समझना-और समझाने के लिए व्याख्या-सूत्रों की उद्भावना करना-दर्शन का प्रमुख कार्य है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जहाँ विभिन्न भौतिक विज्ञान अपने क्षेत्र के तत्वों या शक्तियों का मात्राधर्मी अध्ययन करते हैं, वहाँ दर्शन की विभिन्न शाखाएँ विभिन्न कोटियों के गुणात्मक प्रभेदों का अनुशीलन करती हैं। विज्ञान का बोध हमें वस्तुओं एवं शक्तियों पर नियंत्रण की क्षमता देता है, दर्शन का कोई अंग वैसी क्षमता नहीं देता। वह केवल हमारी दृष्टि या चेतना का विस्तार एवं गुणात्मक परिष्कार करता है। इस परिप्रेक्ष्य में देखने पर हम पायेंगे कि जिन्हें हम मानवीय विद्याएँ कहते हैं। अर्थात नर विज्ञान, समाजशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र आदि-उनकी स्थिति कहीं भौतिक विज्ञानों और दर्शन के बीच में है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जहाँ विज्ञान, और यहाँ हमारा मतलब मुख्यतः भौतिक विज्ञानों से है, हमें भौतिक परिवेश पर अर्थात प्राकृतिक जगत पर नियन्त्रण की क्षमता देता है, वहीं दर्शन का कार्य हमारे गुणात्मक बोध और जीवन को आगे बढ़ाता है। कहना ना होगा कि यह बोध और क्रियाएँ हमारे आन्तरिक, प्रतीकबद्ध या भाषाश्रित जीवन का अंग हैं।
क्या दर्शन आत्मज्ञान है ?
प्राचीन उपनिषद् अथवा वेदान्त और दूसरे भारतीय दर्शन भी यह प्रतिपादित करते हैं कि मोक्ष के साधक को आत्मज्ञान सम्पादित करना चाहिए। फलतः भारतवर्ष में क्रमशः यह मत ग्राह्य हुआ कि दर्शन का प्रमुख लक्ष्य आत्म-बोध है-जो मोक्ष प्राप्ति का अन्यतम साधन है। ध्यातव्य है कि भारतीय दर्शन मनुष्य में ही नहीं, पशु-पक्षियों एवं कीट-पतिंगों में भी समान आत्माओं की उपस्थिति मानता है। इसके विपरीत ईसाई धर्म में माना जाता है कि आत्मा केवल मनुष्य में होती है, अन्य प्राणियों में नहीं। भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में दूसरी महत्व की बात यह है कि आत्मा एकरूप, निर्विकार मानी जाती है। उसके स्वरूप को सदा के लिए जान लिया जा सकता है। हमारा मत इस परम्परागत मन्तव्य से भिन्न है। हमारे अनुसार साहित्य और दर्शन दोनों का विषय मनुष्य है। साहित्य में हम प्रकृति तथा दूसरे जीवों को मनुष्य की दृष्टि से देखते और बोध का विषय बनाते हैं। तुलसीदास ने कहा कि काव्य साहित्य का वास्तविक कार्य ईश्वर का गुणगान होना चाहिए न कि प्राकृत नर का। इसके विपरीत हम साहित्य में मनुष्य को ही प्रतिष्ठित करने की सिफ़ारिश कर रहे हैं। राम और कृष्ण वहीं तक काव्य साहित्य के विषय बन सके, जहाँ तक उन्होंने मनुष्योजित कार्य-कलाप किये।
इस प्रकार-जैसा कि अँग्रेज़ी कवि पोप ने कहा है-हमारे और दर्शन के, अध्ययन-अनुशीलन का प्रमुख, शायद एकमात्र, विषय मनुष्य है। और यहाँ यह दृष्टव्य है कि मनुष्य एक ऐतिहासिक एवं विकासशील प्राणी है। मनुष्य का ज्ञान निरन्तर विकसित हो रहा है, जिसका मतलब है कि उसकी चेतना निरन्तर प्रसरणशील है। यह चेतना तथ्य-जगत से सम्बन्धित रहती है, औऱ मूल्य-जगत से भी। तात्पर्य यह कि मनुष्य का जगत्-बोध, आत्म-बोध एवं मूल्य-बोध ये सब निरन्तर परिवर्तित और विकसित हो रहे हैं। प्राचीन संस्कृत भाषा में जहाँ ‘संसार’ एवं ‘जगत्’ विश्व की गतिमयता को रेखांकित करते हैं, वहाँ पृथ्वी के ‘अचला’ जैसे नाम यह बताते हैं कि प्राचीन लोग धरती की गतिमयता से परिचित न थे। मतलब यह है कि आज का खगोलशास्त्र प्राचीन खगोलविद्या से भिन्न है, इसी प्रकार हमारा प्रकृति-जगत का ज्ञान निरन्तर बदलता-विकसता रहा है। वैसे ही हमारे मूल्यबोध में भी परिवर्तन हुआ है, होता रहा है। आज के जनतन्त्री युग में हम यह स्वीकार नहीं करते कि तथाकथित राजा या शासक में देवता निवास करता या करती है, या यह कि वह मनुष्य रूप में देवता होता है। इसी प्रकार आज हम स्त्री के सतीत्व को उतना महत्व नहीं देते और न नौकरों की नमकहलाली पर ही निर्भर कर पाते हैं। आज फ़ैक्ट्री के मज़दूर यूनियन बनाते और विद्रोह का पाठ पढ़ते हैं। आज के बेटा-बेटी माता-पिता का उतना आज्ञा-पालन और सेवा नहीं करते जैसा कि श्रवण कुमार की और राम की कथा में प्रतिफलित है।
आज हम वेदों और शास्त्रों में भी पूर्व युगों की जैसी आस्था नहीं रखते। आज के अनेक हिन्दू मृतक बाप-दादा का श्राद्ध करना, उनके उपलक्ष्य में प्रतिवर्ष ब्राह्मणों को खिलाना आवश्यक कर्तव्य नहीं मानते। तात्पर्य यह है कि आज का नीतिबोध पुराने युगों से नितान्त भिन्न होता जा रहा है। ध्यान देने की बात यह है कि इस परिवर्तित मूल्यबोध और जगतबोध का भी वाहक मनुष्य होता है। इस मनुष्य का, इन्हीं कारणों से, चेतनाधर्मी स्वभाव या स्वरूप बदलता जा रहा है। दर्शन इस बदलते विकसित होते हुए चेतनाधर्मी मनुष्य के स्वरूप का अध्ययन-अनुशीलन है। जहाँ विभिन्न मानवीय विज्ञान उक्त मनुष्य को यथार्थ स्थिति या यथार्थता को पकड़ने की कोशिश करते हैं, वहाँ दर्शन उसका अनुशीलन मनुष्य के गुणात्मक विकास की दृष्टि से करता है। एक और बात है। दर्शन जिस मनुष्य का अध्ययन करता है वह मात्र इन्द्रियगोचर भौतिक इकाई नहीं है। मनुष्य नाम का प्राणी अपनी विकासमान, चेतनाधर्मी संस्कृति का वाहक है; उस संस्कृति का जो मुख्यतया भाषा आदि के प्रतीकों में रूप में लाभ करती है और जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी विरासत के रूप में संक्रान्त होती चलती है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि दर्शन का विषय मनुष्य की वे प्रतीकबद्ध सांस्कृतिक क्रियाएँ अथवा सांस्कृतिक रचनाएँ हैं जो प्रतीकों का आश्रय लेकर अपने को आपेक्षिक अर्थ में स्थिर बनातीं चलती हैं। दर्शन मनुष्य का अध्ययन है, लेकिन वह मनुष्य के भौतिक अस्तित्व या व्यक्तित्व का अध्ययन नहीं करता। इसके विपरीत वह मनुष्य की उन सांस्कृतिक क्रियाओं का अनुशीलन करता है जो उसमें गुणात्मक उत्कर्ष का आधान करती हैं। इस अर्थ में दर्शन मनुष्य की उच्चतम सांस्कृतिक क्रियाओं की आत्मचेतना है। दर्शन मनुष्य के सांस्कृतिक आत्म (Cultural self) का अनुशीलन और बोध है।
दर्शन का प्रस्थान बिन्दु
ऊपर हमने दर्शन के स्वरूप की मानववादी व्याख्या प्रस्तुत की। प्रश्न है, किसी भी समस्या के सन्दर्भ में दर्शन का प्रस्थान बिन्दु क्या होता है या होना चाहिए। किसी भी विज्ञान या वैज्ञानिक चिन्तन का प्रस्थान बिन्दु प्रायः कोई समस्या होती है, ऐसी समस्या या प्रश्न जो विज्ञान विशेष की सुथरे ढंग से बढ़ती या होती-गति प्रगति में अटकाव डालती है। दर्शन के क्षेत्र में अटकाव डालने वाली समस्या प्रचलित मूल्यबोध के एक या दूसरे क्षेत्र में घटित क्रान्ति या दूरगामी परिवर्तन होता है। सामान्यतया, समीक्षात्मक अवगति का वाहक होने के नाते, दर्शन मूल्यों के क्षेत्र में तर-तम भाव के निरूपण एवं व्याख्या का प्रयत्न करता है। यह निरूपण और व्याख्या युगीन मूल्य चेतना से सम्बद्ध रहती है। एक दृष्टि से कहा जा सकता है कि प्रत्येक क्षेत्र में दर्शन अपने-देश काल की मूल्य-सम्बन्धी तर-तम भाव की प्रचलित दृष्टि का स्पष्टीकरण एवं उसे सैद्धान्तिक आधार देने का प्रयत्न होता है। दूसरी दृष्टि से वह प्रचलित मान्यताओं की समीक्षा और उन्हें नयी दिशा देने की कोशिश कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए, मनु के समय में भारतीय समाज में वर्णव्यवस्था कायम हो चुकी थी।
मनु से पहले पुरुष-सूक्त में, स्वयं मनुस्मृति तथा अन्य धर्म-सूत्र-ग्रन्थों में और बाद में विभिन्न पुराणों में प्रचलित वर्ण-व्यवस्था को सृष्टिप्रलय की गाथाओं अथवा दूसरी कथाओं के रूप में सैद्धान्तिक आधार देने का प्रयत्न किया गया। दर्शन में पुनर्जन्म और विगत जन्मों के कर्म-फल आदि के रूप में वर्ण-व्यवस्था का सैद्धान्तिक मण्डन प्रस्तुत किया गया। आज के प्रगतिशील विचारक वर्णभेद, रंगभेद आदि की व्यवस्था को नहीं मानते, फलतः आज का दर्शन अर्थात राजनीति-दर्शन एवं राज्य व्यवस्था का सिद्धान्त जनतंत्री विचारधारा का आश्रय लेकर वर्णभेद एवं रंगभेद का खण्डन करते हुए समस्त मानव-जाति की समानता का प्रतिपादन करता है। ईसाई धर्म के इतिहास में ईश्वर की दृष्टि में सब मनुष्य समान हैं, इस मान्यता के आधार पर मनुष्यों की समता पर बल दिया गया है। इसी प्रकार आज के युग में स्त्री के पातिव्रत्य अथवा एक पति के प्रति निष्ठा का उतना महत्व नहीं रह गया है, पश्चिमी देशों में स्त्री पुरुष के समान अधिकार माँगती और पति से अपमान या अवज्ञा पाकर तलाक दे देती है। आज हमारे देश में भी पति की मृत्यु के बाद विधवा द्वारा आत्मदाह के समर्थक नहीं रह गये हैं, और विधवा का पुनर्विवाह भी बुरी बात नहीं समझी जाती। अमेरिका आदि पश्चिमी देशों में अब तलाकशुदा महिला को हेय दृष्टि से नहीं देखा जाता। इस प्रकार के मूल्यबोध-सम्बन्धी परिवर्तनों को समझने-समझाने और व्याख्यात्मक तथा सैद्धान्तिक आधार देने का प्रयत्न दर्शन का प्रमुख कार्य है।
नैतिक बोध की भाँति अध्यात्म अथवा रिलीजन के क्षेत्र में भी मनुष्य का मूल्यबोध बदल रहा है। आज हम उस कर्मयोगी सन्त को, जो गाँधी की भाँति जनहित में त्याग का जीवन व्यतीत करता है, अधिक मान्यता देते हैं-उस सन्त की अपेक्षा जो हिमालय की कन्दराओं में प्रविष्ट होकर मोक्ष-साधना करने का आडम्बर करता है। द्रष्टव्य है कि परम सन्त रामकृष्ण परमहंस ने अपने प्रिय शिष्य स्वामी विवेकानन्द को देश को नया जागरण-सन्देश और विवेक देने की प्रेरणा दी थी। दर्शन का एक महत्वपूर्ण अंग, कहना चाहिए उसका आधारभूत अनुशासन, ज्ञान-मीमांसा है, जिसमें ज्ञान के सम्पादन एवं प्रमाणीकरण की प्रक्रियाओं पर विचार होता है इधर घटित हुई विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति ने दार्शनिक जगत् में खलबली उत्पन्न कर दी है। प्रश्न उठता है कि दार्शनिक विचारकों के बीच इतने अधिक मतभेद क्यों बने रहते हैं ? इस प्रश्न का समुचित समाधान दर्शन की ज्ञान-मीमांसा नामक शाखा को दूरगामी, तलस्पर्शी आत्म-समीक्षण की चुनौती और प्रेरणा देता है।
प्रश्न है, अन्ततः दर्शन के वक्तव्य किस चीज के बारे में होते हैं ? दर्शन के किसी क्षेत्र में परस्पर विरोधी या भिन्नता रखने वाले वक्तव्यों या प्रकथनों के बीच सही-ग़लत का कैसे निर्णय किया जाये ? क्या दर्शन के किसी क्षेत्र में निश्चयात्मक ज्ञान हो सकता है ? क्या दर्शन के क्षेत्र में कुछ ऐसे तत्व होते हैं, जिनके आधार पर विभिन्न मन्तव्यों को सही या ग़लत अथवा अंशतः सत्य घोषित किया जा सके ? ये बड़े प्रश्न हैं, इन और ऐसे प्रश्नों पर प्रत्येक युग के विचारकों को नये सिरे से सोचना पड़ता है। आज हमारे देश के दर्शन में गतिरोध की स्थिति है। यदि हमारे विचारक उक्त प्रश्नों पर ज़िम्मेदारी से और स्वतंत्र भाव से, पूर्व और पश्चिम की इधर तक की दार्शनिक प्रगति के आलोक में, गम्भीर चिन्तन शुरू करें तो निश्चय ही हमारे दर्शन को नयी गति और मौलिक दिशा या दिशाएँ प्राप्त हो सकती हैं।
कुछ पुराने शिक्षक यह मान्यता रखते हैं कि दर्शन के प्रश्न और समस्याएँ सर्वकालिक हैं और यह कि उनके बारे में प्राचीन युगों का चिन्तन आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना कि पूर्व युगों में था। इस मानसिकता को पालते हुए दर्शन के कुछ विद्यार्थी और पोषक यह समझते हैं कि दर्शन के विशिष्ट क्षेत्र में नये चिन्तन की अपेक्षा नहीं है और यह कि प्राचीन दर्शनों का अनुशीलन जीवन की अर्थवत्ता एवं लक्ष्य के बारे में सर्वकालीन प्रासंगिकता रखता है।
किन्तु यह धारणा सर्वथा स्वीकार करने योग्य नहीं है। मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि प्राचीन विचारकों द्वारा संकेतित धर्म, अर्थ तथा काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ आज भी सर्वग्राह्य हैं। किन्तु तथ्य यह है कि प्रत्येक युग और समाज उक्त पुरुषार्थ को अपने ढंग से परिभाषित तथा व्याख्यायित करता है। हमारे प्राचीन स्मृतिकार तथा धर्मसूत्रों के प्रणेता समाज-व्यवस्था और व्यक्ति-जीवन की चर्या के बारे में कुछ विचार रखते थे, आज वे विचार अपने मूल रूप में ग्रहण नहीं किये जा सकते। आज विभिन्न कार्यक्षेत्रों में रिटायरमेण्ट अथवा सेना-निवृत्ति की अवस्था स्वीकार की जा सकती है, सम्भवतः पुराने युगों में तुलनीय नियम नहीं थे। उस समय आदर्श स्थिति यह समझी जाती थी कि व्यक्ति पचास वर्ष पार करते हुए वानप्रस्थी बन जाए और इसके बाद संन्यासी। आज जनसंख्या के विस्फोट के युग में धरती पर ऐसे स्थान नहीं रह गये हैं जहाँ वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों में प्रविष्ट होने वाले जन फल आदि का आहार लेते हुए जीवन-यापन कर सकें। यों आज भी श्री अरविन्द, महर्षि रमण तथा गाँधी जी के कुछ अनुयायी आश्रमों में रहने की सुविधा पा सके हैं, किन्तु वस्तुतः वैसी सुविधाएँ हर किसी को उपलब्ध नहीं हैं। निष्कर्ष यह कि इतिहास के बदलते माहौल में हमारी जीवन सम्बन्धी समस्याओं एवं मान्यताओं का स्वरूप भी बहुत कुछ बदल गया है। ध्यातव्य है कि हमारे दर्शन और हिन्दू-संस्कृति के अन्यतम व्याख्याता डॉ. राधाकष्णन् प्राचीन अर्थ में न वानप्रस्थी बने न संन्यासी।
दार्शनिक चिन्तन के उपयोग को समझने की कोशिश में प्रस्तुत लेखक ने यह अभिमत प्रकट किया है कि दर्शन किसी संस्कृति का आत्मावगति (self-awareness) है। उक्त मान्यता को हम दो उदाहरण देकर स्पष्ट करेंगे। आज का युग जनतन्त्र का युग कहा जाता है। जनतंत्र के तहत प्रायः समस्त नागरिकों को समान अधिकार होते हैं। आदर्श जनतंत्र में समस्त नागरिकों, विशेषतः उनकी सन्तानों को समान सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। इन सुविधाओं में शिक्षा तथा योग्यता के अनुरूप जीविका की सुविधाएँ मुख्य हैं। दूसरे, वर्तमान युग में जाति या वर्ग-विशेष के अन्तर्गत जन्म लेने को महत्व नहीं दिया जाता। यह दूसरी बात है कि प्रत्येक बालक को उसके स्वाभाविक रुझानों एवं योग्यता के अनुरूप शिक्षा एवं कार्य-क्षेत्र का प्रावधान उचित समझा जाता है। जन्मना जाति का सिद्धान्त आज किसी सभ्य समाज में ग्राह्म नहीं माना जाता। जर्मनी के तानाशाह हिटलर का विचार था कि जर्मन लोगों तथा आर्य-जातियों को इतर समूहों पर शासन करने का जन्मसिद्ध अधिकार है। हिटलर ने यहूदी कहे जाने वाले जन-समूहों को जर्मनी से निकाल बाहर करने की पेशकश की। ध्यातव्य है कि कथित यहूदी जाति के सदस्य विशेषतः इधर के इतिहास में, विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करते रहे हैं। उदाहरण के लिए इधर वैज्ञानिक अन्वेषण एवं आर्थिक राजनीतिक व्यवस्था के सम्बन्ध में कई जर्मनी विचारकों ने उल्लेखनीय नये विचार दिये हैं। यह एक ऐतिहासिक संयोग है कि बीसवीं शती के कतिपय प्रख्यात वैचारिक नेता यहूदी थे, जैसे मनोविज्ञान के क्षेत्र में फ्रायड, आर्थिक-रातनीतिक क्षेत्र में कार्ल मार्क्स और भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में अलबर्ट आइन्स्टाइन।